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“बेटियाँ”

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पिता नाम की छत से बेटे बे-शक खंभे बनकर जुड़ते हैं, खिल-खिल कर..  घर को घर.. बनाती फुलवारी हैं “बेटियाँ”..! नीड़-नीड से बना घरौंदा उन को दिखलाया जाता है। फिर सब को.. इक दिन छोड़ के ‘बढ़ना’ उनको सिखलाया जाता है.. तब नए सृजन की बढ़-चढ़ कर लेती.. खुद ज़िम्मेदारी, हैं “बेटियाँ”..! जिनके आ जाने भर से, सब के बेहतर कल आए हैं। मात-पिता जिसकी आहट से.. राहत पल-पल पाए हैं। जो ‘देहरी’ का अभिमान बनीं, वो ख़ूबसूरत.. किलकारी हैं “बेटियाँ”..! पतझड़ के मौसम में जब.. ‘खंभे’ छत से ‘अलग’ हो जाते हैं, घर की बिखरती हालत में.. ‘मजबूरी’ का राग सुनाते हैं। फिर वहीं लौटकर “बूढ़ी छत” को “सहारा” देतीं.. अलमारी हैं “बेटियाँ”..! महिला-दिवस के अवसर पर देश की “बेटियों” को  “अंकुर” का छोटा सा उपहार 🙏 स्वीकृत हो, इसी वंदना के साथ -सदैव आपका-     “अंकुर” ______________________________________________________ विनती है इस रचना पर भी अपनी अमूल्य प्रतिक्रिया (कमेंट) में अवश्य छोड़िएगा पसंद आए तो “शेयर” ज़रूर कीजिएगा। _____________________________________________...

इक तू ही नहीं है “क़िस्मत में”... "बाक़ी कमी कुछ भी नहीं ।

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इक तू ही नहीं है “क़िस्मत में”... “बाक़ी कमी” कुछ भी नहीं । तुझे ‘सोच-सोच’ के “सँवरा” हूँ, जब ‘टूट-टूट’ के “बिखरा” हूँ ! इतना कुछ तेरे लिए “सहा” कि अब.. इन आँखों की “नमीं” कुछ भी नहीं । इक तू ही नहीं है “क़िस्मत में”... “बाक़ी कमी” कुछ भी नहीं । तेरी इबादत पे सारी दुनिया “वारी” है, इस सारे ज़माने में मुझको.. केवल ‘तू’ प्यारी है। तेरे लिए “लड़-भिड़” जाऊँ हर इक ‘शय’ से हर दफ़ा, मेरे लिए इससे “बड़ी बंदगी” कुछ भी नहीं । इक तू ही नहीं है “क़िस्मत में”... “बाक़ी कमी” कुछ भी नहीं । Would you like to be friends with “Ankur” just click on this Picture 👇 तेरी ही “यादें” ...   तू ही “सुकूँ”, ख़्वाहिश मेरी...  तेरा “बनूँ” ! हर ‘जतन’ करूँगा पाने को.. “आख़िर” मैं तुझको पाऊँगा, जो तेरे बिना “रह-रह” कटे.. “वो ज़िन्दगी” कुछ भी नहीं । इक तू ही नहीं है “क़िस्मत में”... “बाक़ी कमी” कुछ भी नहीं ।                 - सदैव से आपका -                     ...

अश्क़ों की धार बहती है.. दर्द मैं सह नहीं पाता! बहुत कुछ कहना है तुमसे, मग़र मैं कह नहीं पाता!

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अश्क़ों की धार बहती है..                      दर्द मैं सह नहीं पाता! बहुत कुछ कहना है तुमसे,                     मग़र मैं कह नहीं पाता! मुसल्सल फासलों के फ़ैसले..                      इस कदर रुलाने लगे। न जाने कितने नए-पुराने                      ख़्वाब याद..आने लगे। मेरा घमण्ड झूठा था,                    जो तुझको छोड़ के आया। मैं यकीनन हाल कहूँ अपना..                     तुझ बिन रह नहीं पाता! अश्क़ों की धार बहती है..                      दर्द मैं सह नहीं पाता! बहुत कुछ कहना है तुमसे,                     मग़र मैं कह नहीं पाता! निगा...

अरसों से हमने अपनी मुस्कान नहीं देखी।

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झंझावातों में सुकून की उड़ान नहीं देखी। अरसों से हमने अपनी मुस्कान नहीं देखी। देखने को तो सब कुछ मिल ही गया है लगभग मग़र कोई निगाह हमने निगहबान नहीं देखी। चोट सहनी ही पड़ेगी ग़र खुद को तराशना है । हमने तसल्ली से बनती कहीं पहचान नहीं देखी। कंक्रीट और धुएँ के जंगल के गुण गाए जा रहे हो शायद तुमने कच्चे मढ़े की दलान नहीं देखी। पहले "सब" से "हम" हुये, अब "हम" से सिमटकर "मैं" तमाम जरूरतों में दुनिया होती वीरान नहीं देखी? शायद सब तकलीफों को बस इक ही पता अच्छा लगा! दिक्कतें किसी को इतना करती परेशान नहीं देखी। एक मोड़ ऐसा मिला..  जहाँ  तुम  मिल ही   गए! उस पल से ज्यादा किस्मत मेहरबान नहीं देखी। जो सुबह शाम बिना थके बच्चों की ख़ातिर अड़ी रहे उस पिता से ज्यादा मजबूत कोई चट्टान नही देखी। शुरुआत से आखिर तक हमसफ़र का साथ था। इससे ज्यादा खूबसूरत उम्र की ढलान नही देखी। मेरे चेहरे की चमक देखकर चौंक रहे हो.. तुमने आँखों में हो रही खींचतान नहीं देखी। रब ने मेहर रखी तो अंकुर की कलम लिखती रही उसने काफ़िये-रदीफ़ की कभी मिलान नहीं देखी।     ...

रंगती हो तो रंग जाए, माँ की चूनर बेटों के खून से! तुम को फर्क कहाँ पड़ना है... निन्दा करो जूनून से!

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रंगती हो तो रंग जाए, माँ की चूनर बेटों के खून से! तुम को फर्क कहाँ पड़ना है... निन्दा करो जूनून से! जब हथियार उठाकर भी सैनिक को  'लाते: खानी पड़ती हो, जहाँ "दाल" का हाल बताकर 'सजा' उठानी पड़ती हो। गद्दारों की टोली आकर नांक चिढ़ाकर जाए जब। रगों में कितना लहू खौलता कौन तुम्हें समझाए अब? आज तिरंगे में लिपटकर फिर से.. कुछ सैनिक आयेंगे! प्रशासनिक कायरता के.. किस्से वो "शव" सुनाएंगे। तुम वही पुरानी "निंदा" का भाषण मंच से बोलोगे.. अगर जो जनता जान उठी तो शायद थोड़ा "रो" लोगे। ये रोज रोज के पहले तुम चने चबाने बन्द करो। दहशत गर्दों  के बढ़कर आँसू पोंछ्वाने बन्द करो। पत्थर के बदले लाठी हो, गाली के बदले गाली हो। अब हाथ खुलवाओ सेना के, 'न' बात बैठ कर 'ख़ाली' हो। सारे सैनिक उठकर फिर.. ग़द्दारी की परतो को परिछेद करें। जो नक्सलियो का हमदर्द दिखे, हर उस छाती में छेद करें।              - सदैव से इस भूमि का ऋणी -                        'आर्यण ठाकुर'   ...

माँ भारती क़ा वीर पुत्र "चन्द्र शेखर आज़ाद"

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कैसा उन्माद उठा, उसके भीतर, आजाद-भारत-स्वप्न चिंतन में, वो मौत से भी लड़ गया। "आजाद" था               'आजाद' वो "आजाद-हमको" कर गया।  उस सोच से 'क़ि हम कमजोर हैं', क़ि हम सक्षम नहीं हैं"। ऐसा सोचना व्यर्थ है, ये उसने समझाया। अकेला था, 'जी-भरकर' लड़ा... बदन पर हजारों जख्म खाए, वतन की खातिर जीने की इच्छा, उसके जख्म दबा न पाए। मातृभूमि की रज समेटी आखिर अपनी बाँहो में, चेहरे पे मली, मस्तक पर लगाई, कुछ ओढ़ी "माँ का आँचल" समझ, कुछ मातृभू के प्रेम में हवा में उड़ाई। फिर आखिरी 'जयघोष' किया, अपनी बन्दूक उठाई। बची आखिरी गोली डाली, अपनी मिटटी से गुहार लगाई। हे माँ, मुझे आश्रय देना, मैं तेरी शरण में आता हूँ। माफ़ करना माँ मुझे अब मैं अपना अंतिम वचन निभाता हूँ। बेड़ियों में जकड़ी माँ का दर्शन मैं "पाप" समझता हूँ। ऐसी हालत में रहकर के जीना अभिशाप समझता हूँ। "आज़ाद को कोई चाह नहीं.. क़ि अब ये जीवनदान मिले।" "मातृ भारती पुण्य वत्सला.. मुझे अभय का दान मिले।" जिस "रज...

"पत्थरबाजी"

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विरोध को ठहरे परवानों को सीधे सीधे समझा दो। सेना पे आँख उठाने का मतलब इनको समझा दो। इनको सब कुछ समझ आएगा, अब इनकी ही भाषा में.. विश्वामित्र समझ न आएं, इन्हें प्रेम दिखे दुर्वासा में..! कान खोल कर सुनो सभी, अब... मैं तुम्हे चेताता हूँ। जिस भाषा को सीखा तुमने, उसमें तुम्हें बताता हूँ। औकात तुम्हारी है इतनी, जो सेना से टकराओगे। अगर जरा भी आँख नटेरीं.. बेभाव जूते खाओगे। उन आकाओं से जाकर कह दो, जो लेकर आड़ तुम्हारी बैठे हैं। सिर्फ चार सिक्के दिखला कर, मति को फाड़ तुम्हारी बैठे हैं। दो चार सियासी गद्दारों की दम पर, इतना फूलो मत। पाक तुम्हारा बाप नहीं है, उसकी दम पर ऊलो मत। बिसात तुम्हारी है ही क्या.. वैसे भी टुकड़ों पर पलते हो। जिसका दूध पिए जीते हो.. उस माँ को ही छलते हो। तुमसे तो अच्छे गली के कुत्ते.. घर घर बेशक जाते हैं। जिस घर की रोटी खाते हैं.. उसका नमक चुकाते हैं। खुलेआम आबरू बेच रहे हो, तुमको शर्म नहीं आती है? बिना लट्ठ खाए तुमको, बोलो नींद नहीं आ पाती है? 'अंकुर' तुमको समझाता है, न जाने क्या क्या हो जाए..! कई पुश्तें गंजी पैदा होगी.. ग़र सेना आप...