"पत्थरबाजी"



विरोध को ठहरे परवानों को सीधे सीधे समझा दो।
सेना पे आँख उठाने का मतलब इनको समझा दो।

इनको सब कुछ समझ आएगा, अब इनकी ही भाषा में..
विश्वामित्र समझ न आएं, इन्हें प्रेम दिखे दुर्वासा में..!

कान खोल कर सुनो सभी, अब... मैं तुम्हे चेताता हूँ।
जिस भाषा को सीखा तुमने, उसमें तुम्हें बताता हूँ।

औकात तुम्हारी है इतनी, जो सेना से टकराओगे।
अगर जरा भी आँख नटेरीं.. बेभाव जूते खाओगे।

उन आकाओं से जाकर कह दो, जो लेकर आड़ तुम्हारी बैठे हैं।
सिर्फ चार सिक्के दिखला कर, मति को फाड़ तुम्हारी बैठे हैं।

दो चार सियासी गद्दारों की दम पर, इतना फूलो मत।
पाक तुम्हारा बाप नहीं है, उसकी दम पर ऊलो मत।

बिसात तुम्हारी है ही क्या.. वैसे भी टुकड़ों पर पलते हो।
जिसका दूध पिए जीते हो.. उस माँ को ही छलते हो।

तुमसे तो अच्छे गली के कुत्ते.. घर घर बेशक जाते हैं।
जिस घर की रोटी खाते हैं.. उसका नमक चुकाते हैं।

खुलेआम आबरू बेच रहे हो, तुमको शर्म नहीं आती है?
बिना लट्ठ खाए तुमको, बोलो नींद नहीं आ पाती है?

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'अंकुर' तुमको समझाता है, न जाने क्या क्या हो जाए..!
कई पुश्तें गंजी पैदा होगी.. ग़र सेना आपा खो जाए।

पत्थरबाजी बद्तमीजी इतनी महँगी पड़ जाएगी।
गोली छाती से घुसेगी, पिछवाड़े में अड़ जाएगी।




                   -सदैव से आपका-
                   अंकुर सिंह राठौड़
                     'आर्यण ठाकुर'


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