“बेटियाँ”




पिता नाम की छत से बेटे
बे-शक खंभे बनकर जुड़ते हैं,
खिल-खिल कर..  घर को घर..
बनाती फुलवारी हैं “बेटियाँ”..!



नीड़-नीड से बना घरौंदा
उन को दिखलाया जाता है।
फिर सब को.. इक दिन छोड़ के ‘बढ़ना’
उनको सिखलाया जाता है..
तब नए सृजन की बढ़-चढ़ कर
लेती.. खुद ज़िम्मेदारी, हैं “बेटियाँ”..!

जिनके आ जाने भर से,
सब के बेहतर कल आए हैं।
मात-पिता जिसकी आहट से..
राहत पल-पल पाए हैं।
जो ‘देहरी’ का अभिमान बनीं,
वो ख़ूबसूरत.. किलकारी हैं “बेटियाँ”..!

पतझड़ के मौसम में जब..
‘खंभे’ छत से ‘अलग’ हो जाते हैं,
घर की बिखरती हालत में..
‘मजबूरी’ का राग सुनाते हैं।
फिर वहीं लौटकर “बूढ़ी छत” को
“सहारा” देतीं.. अलमारी हैं “बेटियाँ”..!


महिला-दिवस के अवसर पर देश की “बेटियों” को  “अंकुर” का छोटा सा उपहार
🙏 स्वीकृत हो, इसी वंदना के साथ

-सदैव आपका-
    “अंकुर”

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कब तक द्वन्द सम्हाला जाए, युद्ध कहाँ तक टाला जाए।

रंगती हो तो रंग जाए, माँ की चूनर बेटों के खून से! तुम को फर्क कहाँ पड़ना है... निन्दा करो जूनून से!

कहीं.. इसके बाद, न मिलूँगा... तुझे! तेरे साथ मेरा, ये सफ़र आखिरी है।