चल दिया था..मैं..!

चल दिया था..मैं..!



इक   बेतुकी सी गज़ल  गुनगुनाने  चल दिया था मैं।
सब  भूल कर  फिर से मुस्कुराने   चल दिया था मैं।

खुद खुली हवा में जीया मैं,घर का नमो निशां नहीं।
दूसरों के लिए "हवा-महल" बनाने चल दिया था मैं।

आखिर कैसे भूल गया क़ि...मैं तो बस एक जरिया हूँ।
अरमान पालकर सदियों के चहचहाने चल दिया था मैं।

खूब पता था, ये..   बे-ख़्यालों  के खेल  नहीं  होते हैं।
इक मुस्कान की खातिर रुठने मनाने चल दिया था मैं।

तेरी आँखे हैं जो  मुझमें जरा सी  जिंदगी भरतीं हैं रोज।
वरना कब का मौत को अपनी बहलाने चल दिया था मैं।

बस तू ही है, जिसको "सँजो" के जिन्दा हूँ, अब तक।
वर्ना अपनी ख़ुशी तो कब की दफ़नाने चल दिया था मैं।

जिस "लापरवाही" से आर्यण की पहचान होती है।
"तेरी ख़ुशी में" इसको भी मिटाने चल दिया था मैं।



                 - सदैव से आपका -
                  " आर्यण ठाकुर "
                (अंकुर सिंह राठौड़) 
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