" जिद "

"जिद"


एक चींटी की जिद है,
समंदर पार जाने की।
कहती है...आदत नहीं है,
मुझको हार जाने की।


'मुश्किलें' कितनी ही..
ताकतवर..क्यों न बनी रहें,
मैंने भी ठान रखी है...
उन से पार पाने की।


सफलता यूँ ही नहीं...
पा ली मैंने...दोस्त..!
दिक्कतें दिल खोलकर झेली हैं
मैंने..सारे..ज़माने की।


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मेरी आँखों के झरने भी..
अब मेरे काबू में हैं।
यकीं न हो तो कोशिश कर लो..
फिर से, मुझे रुलाने की।


तेरा "स्वाभिमान" तुझसे
ठहरने को नहीं कहता है..क्या..?
या फिर.. उसे भी आदत हो गई,
'साथ-साथ' जिंदगियों में 'आने-जाने' की।


अपनी "चौपाल" पर... बने रहना,
कौन नहीं चाहता है...दोस्त।
मैं चला आया...क्योंकि...जरूरत थी,
दो जून की रोटी कमाने की।

             - सदैव से आपका -
               "आर्यण ठाकुर"
             (अंकुर सिंह राठौड़)

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Comments

  1. इतनी छोटी उम्र में इतनी रचनात्मक प्रतिभा बहुत कम देखने को मिलती है इस देश मे। हम खुद को सौभाग्य पूर्ण मानते है आपके जैसा दोस्त और छोटा भाई जो हमे मिला है। भगवान आपको अपार सफलता दे ऐसी हमारी कामना है।

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