तू भी मुझको मिल जाए...मैं भी तुझको मिल जाऊँ।

तू भी मुझको मिल जाए...
मैं भी तुझको मिल जाऊँ।

तेरी
    'बातों..से',
    'हालातों..से',
कुछ 
     मैं
       यूँ... 'हिलमिल' जाऊँ..!

रुखसार 
           पे 
             तेरे
                "मुस्कान-सा"...

कोई वहाँ पर 'फूल' खिले..
और 
    यहाँ 
         मैं.. 'खिल' जाऊँ..!

तू भी मुझको मिल जाए..
मैं भी तुझको मिल जाऊँ।


तुझको 
       वो 
           "पल" 
                   'याद है क्या ?'
जब
    मुझसे 
           'स्टेशन-पर' 
                     'लिपटी' थी।
जैसे
      कोई तितली मदहोश सी हो
जैसे 
      अरुणोदय की बेला में..."लिपटी"
      बूँद घास पे ओस सी हो..!

फिर से 
       आकर 
               पास
                    बैठ जरा...
कानों में कुछ मीठे बोल सुना..!

गुलाब सा 
          मन को महका दे..
ठहरी
       सांसो को बहका दे।
सीने में
        ठहर
             धड़कन बन कर..

कुछ देर तुझे महसूस करुं...
खेल 'नब्ज' से,

 रगों में घुसकर...
                रुधिर सी 
                       सरपट दौड़ लगा।

रूह में बस जा,
                 वापस..
 फिर से
मेरी बिखरी सांसों को ठहरा दे।


"इतना भी नहीं कर पाओगी?"



मुझे
    पता है,
            तेरी बंदिश क्या है ?
तू 
रस्मों - रिवाजों से 
घिरी-पड़ी है...

और

मैं,
'हवा' का 'आवारा-सा' झोंका हूँ।

चल,
इतना ही कर दे, अब तू..!

एक दो पल को... फिर से "लिपट-जा"

हाल तू अपना बतला दे...

फिर...

     तू भी दुनियादारी में लग जाना।
     मैं भी   अपनी   मंजिल   जाऊँ।

अब यही अकेली ख़्वाहिश है...
     तू बरस पड़े वारिश सी मुझपर..
     मैं भी तुझ में मय सा मिल जाऊँ।

     तू भी  मुझको मिल जाए।
     मैं भी तुझको मिल जाऊँ।



       -सदैव से आपका-
        "आर्यण ठाकुर"
      'अंकुर सिंह राठौड़'
     google.co.in 

  

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