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Showing posts from 2016

फिरता हूँ.. दर दर!

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तेरी छत से,               गुजरूँगा.. मैं! उन टूटे तारों.. सा। तेरी याद में, फूट फूट के बिखरे.. उन चौबारों...सा। सुकून तो शायद.. मिलता होगा,        'दर्द- चुभन' को                  मेरी गोद में आकर! बैचेनी और पगलापन..              सँजो लिया मैंने उनके रखवारों... सा। तू उजले शीशे की... रौशन महफ़िल,        हाल मेरा              धुंधले आरों..सा। हालत अपनी क्या समझाऊँ... अब फिरता हूँ..               'दर-दर', टीस के मारों...सा।              -सदैव से आपका-                "आर्यण ठाकुर"             (अंकुर सिंह राठौड़) Official Facebook address  Facebook.com/ankurthakur21

"कैसे भूल जाऊँ"

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"कैसे भूल जाऊँ" उन सर्द हवाओं का कहर भूल जाऊँ! मैं कैसे, वो तपती दोपहर भूल जाऊँ! एक तेरी वजह से कायम हैं, मेरी साँसे, मैं कैसे दुआओं का असर भूल जाऊँ! सरे राह तप कर यहां तक पहुँच पाया, मैं कैसे, बताओ ये सफ़र भूल जाऊँ! मेरी कमजोरी पे रोज रोज हँसने वाला, मैं कैसे वो मील का पत्थर भूल जाऊँ! हर एक आह मुझको,मजबूत करती गई, मैं कैसे वमुश्किल् सीखा सबऱ भूल जाऊँ! कितनी देर से चेहरे पहचानना सीखा हूँ , मैं कैसे "अंकुर" कीमती हुनर भूल जाऊँ!          _सदैव से आपका_             आर्यण ठाकुर          (अंकुर सिंह राठौड़) To know more about "Ankur singh Rathod" Must login to facebook.com/ankurthakur21

"मम्मी के हाथ में चप्पल वाटा क्यों है" Mummy ke hath me Chappal Vata kyo hai?

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हैलो - हाय, बॉय - बॉय,  टाटा ... क्यों है ? 'निठल्लों' की गली में 'सन्नाटा' ... क्यों है ? मुहब्बत के "ऑन लीज़" ठेकेदार ... तू बता, इसमें बस दुकानदार का 'घाटा' ... क्यों है ? रजाई के भीतर मोबाईल.. कोई गन्दी बात नहीं है! तो मम्मी के हाथ में चप्पल वाटा ...क्यों है ? ओए, पहले कह रहा था, जलता नहीं मुझसे! फिर "इतना हंगामा" तूने काटा ... क्यों है ? दो मिनट की ठण्ड से पतलून गीली होती है, तो करता तू इतना 'सैर -सपाटा'... क्यों है ?           - सदैव से आपका -             " आर्यण ठाकुर "           (अंकुर सिंह राठौड़) Visit Author's official Facebook profile : Facebook. com/ankurthakur21

"ताज्जुब"

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वो महल रेत का.... टूट गया। कोई अपना फिर से छूट गया। बड़ी अच्छी किस्म का "ठग" था वो, सब बैठे बिठाए ही लूट गया। पता  है मुझको, वो..  सपना था। लेकिन.. फिर भी! क्यों टूट गया। सख्ती जिसकी खुद में मिसाल थी, "ताज्जुब" हीरा होकर भी फ़ूट गया। देख पपीहा... मर न जाए कहीं..! उसकी चोंच से  पानी  छूट गया। हार मानना "परिंदे" ने नहीं सीखा, तूफान से बेशक़ घरोंदा टूट गया।                  सदैव से आपका                  - आर्यण ठाकुर -                (अंकुर सिंह राठौड़) Visit official Facebook address: www.Facebook.com/ankurthakur21

शायद... अब तू मुझको याद नहीं है।

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अब किसी से कोई फरियाद नहीं है। शायद.. अब तू मुझको याद नहीं है। कहाँ तो... तेरे सिवाय, मुझे कुछ आता नहीं था। लाख चाहकर भी.. तेरा ख्याल, मेरे मन से जाता नहीं था। अव्वल दर्ज़े का पागलपन था, तेरे लिए देखो तो.. मैंने ख्वाबों से ख़्यालों तक, पुल डाल रखे थे। कितने अजीब-अजीब भरम, मैंने पाल रखे थे।   कभी कभी तो ऐसा लगता था... क़ि मेरा, तुझसे, कुछ खास जुड़ाव है..। जैसे मैं अगर आँख हूँ.. तो तू मेरा ख़्वाब है...। अगर तेरी मर्जी हो, तो.. तुझे असलियत से रूबरू करा दूँ..! एक सीधी-सादी सच्ची बात तुझको बता दूँ..। अरसों तक,           सोचता रहा..            जानता रहा... सदा से सदा तक, यही मानता रहा... तुझसे जुदा हुआ, तो.. कुछ कर न जाऊँ ..मैं। अलग होकर के... कहीं मर न जाऊँ ...मैं।                     -सदैव से आपका-                        आर्यण ठाकुर               ...

इंसान नहीं है...

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"इंसान नहीं है.." रास्तों पे गुजरने का निशान नहीं है। लगता है "मंजिल" मेहरबान नहीं है। मैं भटक रहा हूँ दुनिया में शायद इसलिए.. मेरा, यहाँ, कोई निगहबान नहीं है। हर आदमी यहाँ किस्मत का मारा है। पूँछो तो कहता है, परेशान नहीं है। मेरी शान-ओ-शौकत में वो हमदम था मेरा, आज बेबसी में मिला, तो पहचान नहीं है। हजार दिक्कतों में भी एक आंसू नहीं गिरने दिया। अब लोग कहते हैं, "अंकुर" इंसान नहीं है।              -सदैव से आपका-                 आर्यण ठाकुर             (अंकुर सिंह राठौड़) To know more about..Author..must logon to www.Facebook.com/ankurthakur21

और.. वो "बूढ़ा-मास्साब" क्या देता?

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अपनी 'सनक़' का,  मैं, हिसाब् क्या देता ? तेरे सवाल ही गलत थे, ज़बाब क्या देता ? देख, तेरे लिए सारी रियासत 'सज़दा' करती है... इससे ज्यादा तुझको कोई नबाब् क्या देता ? महीनों से जिसके घर 'फ़ांके' पड़ रहे हों..दोस्त। वो लाकर के तोहफे में रेशमी जुर्राब क्या देता ? जो 'अगुआ' बन बैठा, वो तो खुद ही नशेड़ी है... बताओ वो तुमको सुधार कर पंजाब क्या देता ? "खुश रहना मेरे बेटे" कह कर, जिसने मन से दुआ दी। अपने "लाड़ले" को, और..वो "बूढ़ा-मास्साब" क्या देता? तेरी मन्नत पूरी करने मैं खुद ही चला आया हूँ,देख। इस प्यारी सी मुस्कान से ज्यादा लाज़बाब क्या देता ? इकलौता आदमी है जिसे बुलबुलों तक से नफरत है। फिर मँगवाकर "आर्यण" तुझे, सुर्खाब क्या देता ?                   -सदैव से आपका-                     "आर्यण ठाकुर"                  (अंकुर सिंह राठौड़)  

" जिद "

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"जिद" एक चींटी की जिद है, समंदर पार जाने की। कहती है...आदत नहीं है, मुझको हार जाने की। 'मुश्किलें' कितनी ही.. ताकतवर..क्यों न बनी रहें, मैंने भी ठान रखी है... उन से पार पाने की। सफलता यूँ ही नहीं... पा ली मैंने...दोस्त..! दिक्कतें दिल खोलकर झेली हैं मैंने..सारे..ज़माने की। मेरी आँखों के झरने भी.. अब मेरे काबू में हैं। यकीं न हो तो कोशिश कर लो.. फिर से, मुझे रुलाने की। तेरा "स्वाभिमान" तुझसे ठहरने को नहीं कहता है..क्या..? या फिर.. उसे भी आदत हो गई, 'साथ-साथ' जिंदगियों में 'आने-जाने' की। अपनी "चौपाल" पर... बने रहना, कौन नहीं चाहता है...दोस्त। मैं चला आया...क्योंकि...जरूरत थी, दो जून की रोटी कमाने की।              - सदैव से आपका -                "आर्यण ठाकुर"              (अंकुर सिंह राठौड़) Facebook.com/ankurthakur21        

चल दिया था..मैं..!

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चल दिया था..मैं..! इक   बेतुकी सी गज़ल  गुनगुनाने  चल दिया था मैं। सब  भूल कर  फिर से मुस्कुराने   चल दिया था मैं। खुद खुली हवा में जीया मैं,घर का नमो निशां नहीं। दूसरों के लिए "हवा-महल" बनाने चल दिया था मैं। आखिर कैसे भूल गया क़ि...मैं तो बस एक जरिया हूँ। अरमान पालकर सदियों के चहचहाने चल दिया था मैं। खूब पता था, ये..   बे-ख़्यालों  के खेल  नहीं  होते हैं। इक मुस्कान की खातिर रुठने मनाने चल दिया था मैं। तेरी आँखे हैं जो  मुझमें जरा सी  जिंदगी भरतीं हैं रोज। वरना कब का मौत को अपनी बहलाने चल दिया था मैं। बस तू ही है, जिसको "सँजो" के जिन्दा हूँ, अब तक। वर्ना अपनी ख़ुशी तो कब की दफ़नाने चल दिया था मैं। जिस "लापरवाही" से आर्यण की पहचान होती है। "तेरी ख़ुशी में" इसको भी मिटाने चल दिया था मैं।                  - सदैव से आपका -                   " आर्यण ठाकुर "         ...

तू भी मुझको मिल जाए...मैं भी तुझको मिल जाऊँ।

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तू भी मुझको मिल जाए... मैं भी तुझको मिल जाऊँ। तेरी     'बातों..से',     'हालातों..से', कुछ       मैं        यूँ... 'हिलमिल' जाऊँ..! रुखसार             पे               तेरे                 "मुस्कान-सा"... कोई वहाँ पर 'फूल' खिले.. और      यहाँ           मैं.. 'खिल' जाऊँ..! तू भी मुझको मिल जाए.. मैं भी तुझको मिल जाऊँ। तुझको         वो             "पल"                     'याद है क्या ?' जब     मुझसे             'स्टेशन-पर'                       'लिपटी' थी। जैसे       कोई तितल...

"जंग" छिड़ेगी "जंग"

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'जंग' छिडेग़ी 'जंग' अब,       'जंग' छिड़ेगी 'जंग'...!, 'इस-जिस्म' की 'बर्बादी' तक.., 'इस-रूह' की 'आजादी' तक..! 'रुसवाई' से 'तन्हाई' तक.., 'सादगी' से 'बे-हयाई' तक..! अब,       'जंग' छिड़ेगी 'जंग'..!, तेरे 'भोले-पन' से,                        'मेरी - आवारगी' तक.., मेरे 'पागल-पन' से,                        'तेरी - दीवानगी' तक..! अब,       'जंग' छिड़ेगी 'जंग'...! " ये     'जिंद'           मेरे हाथ से,                           'रेत' की 'मानिन्द' 'खिसकने तक'..," और... 'भीगे - तकिये' पे,                       'नम'                            'चेहरे' की..,...

"माँ"

वो तेरा नाजुक-सा अहसास, आज भी है। तू मेरे आस-पास, आज भी है। तेरे हाथों की "थप-थपाहट" फिर-से 'महसूस' हों, क़ि उखड़ती 'सीने-से' "साँस", आज भी है। यूँ तो, बहुतों पर, मैंने 'भरोसा-कर', "राज-बांटना" सीख लिया है.... "माँ" लेकिन तू ही थी, "मेरी सबसे खास" आज भी है।